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Tuesday, September 15, 2015

मैं प्रवेश करता हूँ

रात के इस  पल में
एक ठहरे हुए कल में
मैं प्रवेश करता हूँ

यह तिमिर की  बेला
स्याह आस्मां
नीचे लाल धरा
मैं प्रवेश करता हूँ

मंजिल है दूर
रास्ता एक घना जंगल
हवाओं से खड़कते पत्ते
एकांतिक अनुभूतियों के साथ
मैं प्रवेश करता हूँ

मन में लेकर
ना कोई अवसाद
बस ठहरा है
एक ख़ास अहसास
ए साथी
तेरे मन में
मैं प्रवेश करता हूँ। 

Thursday, September 3, 2015

किस्सागो

इस शहर की मस्जिदों में क्यों मीनारें नहीं दिखती
 घर में कैद है वह तो क्यों दीवारें नहीं दिखतीं।

रास्तमिजाज है  या मेरा वहम है          (रास्तमिजाज =सच्चाई पसंद)
की नारों में उसके वह आशनाई नहीं दिखती।

तमाम उम्र साँसों में कैद रूह  छटपटाती है
आजाद ख़याल दिखते आजाद रूह नहीं दिखती। 

वक्त पर बिछ गयी है कैसी धूल कोई तो साफ़ करे
पीछे चाबी लगा कोई तो शुरुआत करे
उँगलियाँ उठने लगी हैं अब तो
ठहरा नहीं अगर तो क़दमों के निशाँ क्यों नहीं दिखते। 

किस्सागो से दिल्लगी की आदत भली नहीं     (किस्सागो= किस्सा कहने वाला)
की किस्सों से जिंदगी की राह नहीं निकलती। 

अंधेरों में आवाज लगाएं भी तो क्यूँकर
 कभी चिराग नहीं दिखता कभी जमीं नहीं दिखती।

  

Tuesday, March 17, 2015

टेसू

कविताओं के आगे पड़ाव खोजता
मैं धूप की सुनहली छाँव खोजता।

लाख छुपा कर रख मुहब्बत के नजरानों को
मैं वीराने में गुलशन-ए-बहार खोजता। 

सड़क पर खड़े दरख्तों के मानिंद जिंदगी
वे पीछे जाते मैं निशां आगे खोजता।

इस सन्नाटे से ही क्यों न दिल लगा लूँ मैं
भीड़ में कहाँ वो अब मेरी पुकार  खोजता।

हथेलियों पर रात भर जलते रहे अंगारे
मैं टेसू समझ झुलसे हाथों में रंगों के निशां खोजता। 

ना गुजरे थे ना गुजरेंगे कूचा-ए-यार से
वो खिड़की बंद कर बैठा क़दमों के आवाज खोजता।  

Wednesday, February 4, 2015

मुकाम

इन लहरों पर मुकाम देखूं
फिर साहिलों के कैसे मैं पैगाम देखूं।

हाथ आ कर फिसलती जिंदगी
अब मौत का भी पैगाम देखूं।

सोयी हुई ऑंखें ही देखती हैं सपने
खुली आँखों से जिंदगी मैं तमाम देखूं।

कौमों  के बीच मुहब्बत में क्या कमी रह गयी थी
मजलिस में मैं हिन्दू देखूं मुसलमान देखूं।

होकर मजबूर वह बढ़ता गया अकेला ही
क़दमों में उसके मैं दोनों जहान देखूं।

शाम से लेकर कलम वे बैठे हैं लिखने गजल
मैं सफ़ेद कागज़ पर उनका कलाम देखूं।

Thursday, January 29, 2015

परेड

हर वायदे पर तेरे ऐतबार कैसे करे कोई
कभी खुद से भी प्यार करे कोई।

देखता बरसों से चली आ रही नुमाइशें वह
ख्वाबों से इतना प्यार कैसे करे कोई।

एक साथ दिखाते बच्चे और बंदूकें
कोई कलम पकडे या हथियार पकडे कोई।

मौकों की तलाश में दिखती युवकों की फ़ौज
जब रास्ता ही सुनसान ना हो तो राहजनी कैसे करे कोइ।

तमन्नाओं के दलदल में पैरों को जमीन नहीं मिलती
इन्तेजार में डूबे जाते हैं की रस्सी फेंके कोई।

हर काफ़िर बतलाने लगा है खुदा का पता
नमाजियों पर अब भरोसा कैसे करे कोई।

Sunday, January 25, 2015

तेरी जुल्फों को छू कर जब बयार चली
मेरा दिल लेकर मेरे यार चली।

हम आईने से पूछते अपना ही पता
परछाइयाँ भी मेरी अब तेरे साथ चलीं।

शौक तो बहुत है दिल को मुहब्बत का मगर
किस दामन से उलझ कर जिंदगी की राह चली।

थम कर वक्त जरा बदल क्यों नहीं जाता?
हर बार इसने बस अपनी ही चाल चली।

  

पड़ाव

मन के सवालों का जवाब कहाँ मिलता
की मंजिलों से पहले पड़ाव कहाँ मिलता।

हर पेड़ छिप गया है मकानों की चादरों में
परिंदों को अब शहरों में पड़ाव कहाँ मिलता।

वो कैदी जंगले से झांकता तो जरूर है मगर
सपने और हक़ीकत के परों का विसाल कहाँ मिलता।

बड़ा पाकदामन बतलाते हैं जमाने में उसे
दामन में उसके जले ठूंठों के सिवा कुछ नहीं मिलता।

ठहरकर सोचने की आदत भी भली होती वरना
तेज भागती जिंदगी में ठहराव कहाँ मिलता।

हम आज भी तकते उस हमनशीं का रास्ता
खुदा की नमाज में अब वह सुकून कहाँ मिलता। 

Friday, January 9, 2015

थपेड़े

फ़साने कई लिखे हैं लहरों ने थपेड़ों से 
मिटा मिटा कर साहिलों की रेत थपेड़ों से।

वो जरूर दरियाओं में पनाह मांगते होंगे 
वरना कब बचे हैं सितमगर थपेड़ों से। 

वो कहते मेरी खुशमिजाजी को मेरा बचपना मगर 
उन्हें नहीं पता हम बच ना पाये उम्र के थपेड़ों से।  

वो तो उनकी आशिकी को बेदाग़ रखना था वरना 
कमजोर  हम इतने भी नहीं की लहरें मिटा दे नाम थपेड़ों से।  

रहम मांगते फिरें शख्स वे सीपियों की दुकानों पर 
लहरों ने आ पटका है जिन्हें किनारों पर थपेड़ों से। 

आसान कहाँ है शायरी में मुकाम पाना 
शायरी की जमीन पर मिट जाते कई नाम जिंदगी के थपेड़ों से।