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Sunday, November 9, 2008

शिकार

उसूलों को दे रहे गलियां काबिल--गौर है
ख़ुद दो कदम चल नही सकते ये बात और है

बिना रौशनी दौड़ रहे हैं अँधेरी सुरंगों में
वो कहते इसे ही जिंदगी ये बात और है

शिखर पे होने का दंभ है चेहरे पर
खिसक रही नीचे ज़मीन ये बात और है

ज़ख्मों से सीने पे खाली जगह बची नही
अब भी मैं निशाने पर हूँ ये बात और है

सफर पे था इस तरह की कई हमसफ़र हैं
कारवां कही नही था ये बात और है

उनके अधूरेपन को भरने की कोशिश में
और भी मैं खाली हुआ ये बात और है


दहकते अंगारों में निखार रहा था सोना
हाथ मेरे झुलस गए ये बात और है

जाने किस नशे में लड़खडाए उनके कदम
होश में मैं भी नही था ये बात और है

उनकी कोशिश थी मुझे जोड़ने की उस तरफ़ से
मैं इधर भी दरक रहा था ये बात और है

आयीं वो, गयीं भी वो, रह गई सिर्फ़ यादें
वो कभी आयीं ही नहीं, ये बात और है

3 comments:

Amit Kumar said...

यहाँ लेखक/शायर की व्यंग्यामक दृष्टी अपनी स्मृतियों और भावनाओं से कितनी सरलता से जूझ लेती है इस पर काफ़ी इर्ष्या हुई। हर शेर की पहली पंक्ति अपने साथ एक झूठी उम्मीद पैदा करती हुई आगे बढ़ती है लेकिन अंत तक आते-आते हमारी चेतना-हीनता को कंचोट जाती है। कहीं-कहीं ग़ालिब की झलक भी मिली है। लेकिन आजकल शायरी पढ़ कर जो ख्याल अक्सर ज़हन में आ जाता है कि ये बातें पहले भी पढ़ चुके हैं वैसा यह रचना पढ़ते हुए एक क्षण को भी नहीं लगा। आगे भी ऐसी उम्दा रचनाओं की उम्मीद करता हूँ।

PL said...

ye upar wale types itni hindi nahi aati.....but, certainly a good read :)

Alpana Verma said...

bahut hi khubsurat khyal hain --rachna achchee lagi--yun hi likhtey raheeye-