रे मन
क्यों सपनों का ताना बना?
राहों से बस पार आना
क्यों सोचता दिन रैन
आँखों में भर के आंसू
ह्रदय की कम्पन टटोलता
तेरा ह्रदय अब तेरे अन्दर कहा
तुने ही तो बहा दिया था
बंद कर एक डिबिया में
एक नदी के संग
अब क्यों सपनों का ताना बना?
रे मन
अब सपनों का पीछा
कब तक करेगा?
पुरानों के पीछे
नए को भूलेगा
आगे पड़ी है दुनिया
हाथ फैलाये
गले लगाने को आतुर
अब सपनों का पीछा
कब तक करेगा
रे मन
शायद तू नहीं सुधरेगा
और पुराने में ही
नए को ढूंढेगा
शायद यही तेरी तकदीर है
और यही शुरू होती
जिंदगी की तफ्शीश है
रे मन
तू पुराने में ही
नए को ढूंढेगा
Monday, December 13, 2010
Thursday, September 9, 2010
कुछ अधूरी पंक्तियाँ
१
खुदा से अभी वास्ता न हुआ
मैं काफ़िर, खुदाई का हिस्सा न हुआ।
रंजिश ने तेरी कर दिया ये हाल
मैं बुरा ना हुआ तू अच्छा ना हुआ।
जुदा होके तुमसे मिजाज कुछ अच्छा न हुआ
रोये तुम भी, आंसू मगर सच्चा ना हुआ।
२
रुदाली की राह तकते हैं
अश्क थोडा कम रखते हैं।
पैसों की अहमियत खूब समझ आती है मगर
रिश्तों में अक्ल थोड़ी कम रखते हैं।
3.
ना चारागर की आवाज, न साकी का साज
जमीं में भी न गदा, थे नौहागर एक राज।
खुदा से अभी वास्ता न हुआ
मैं काफ़िर, खुदाई का हिस्सा न हुआ।
रंजिश ने तेरी कर दिया ये हाल
मैं बुरा ना हुआ तू अच्छा ना हुआ।
जुदा होके तुमसे मिजाज कुछ अच्छा न हुआ
रोये तुम भी, आंसू मगर सच्चा ना हुआ।
२
रुदाली की राह तकते हैं
अश्क थोडा कम रखते हैं।
पैसों की अहमियत खूब समझ आती है मगर
रिश्तों में अक्ल थोड़ी कम रखते हैं।
3.
ना चारागर की आवाज, न साकी का साज
जमीं में भी न गदा, थे नौहागर एक राज।
Thursday, September 2, 2010
Wednesday, July 21, 2010
तेरी तस्वीर से सिजदा करता हूँ....
पास कभी न आओगे ये सोचता हूँ,
मैं अपनी बदकिस्मती पर रोता हूँ।
एक उम्र बितायी है तुम्हे चाहने में,
खाक हो जाते हैं रकीब ये सुनता हूँ।
दायरों में समेत कर तुम्हे कोई कैसे रखे,
बिजली के चमकने की बस आवाज सुनता हूँ।
हो जाओगे किसी और के उम्र भर के लिए,
तेरे पीछे मैं एक उम्र खोता हूँ।
चाँद है आसमान पर और जल रहा हूँ मैं,
सूरज न निकले कुछ कोशिश करता हूँ।
तलब है तेरी ख्वाब हो या हकीकत,
खुल जाये न ये भेद तेरी तस्वीर से सिजदा करता हूँ।
मैं अपनी बदकिस्मती पर रोता हूँ।
एक उम्र बितायी है तुम्हे चाहने में,
खाक हो जाते हैं रकीब ये सुनता हूँ।
दायरों में समेत कर तुम्हे कोई कैसे रखे,
बिजली के चमकने की बस आवाज सुनता हूँ।
हो जाओगे किसी और के उम्र भर के लिए,
तेरे पीछे मैं एक उम्र खोता हूँ।
चाँद है आसमान पर और जल रहा हूँ मैं,
सूरज न निकले कुछ कोशिश करता हूँ।
तलब है तेरी ख्वाब हो या हकीकत,
खुल जाये न ये भेद तेरी तस्वीर से सिजदा करता हूँ।
Wednesday, May 12, 2010
दूसरों के चश्मे से देखते देखते
खुद की ऑंखें गवां बैठे हैं हैं,
सच को झूठ कहने की
शर्मिंदगी गवां बैठे हैं।
झारफानुस से लटकी कुछ किरणों के
सायों में बिता देते हैं रात,
अँधेरे को समझने की
ताकत गवां बैठे हैं।
दरिया-ऐ-इश्क में फ़ना
हो भी जाएँ तो कैसे,
राह के रोड़ों को
पर्वत बना बैठे हैं।
राह-ऐ-फिरदौस पर उठे जो उनके कदम,
खुदा जन्नत कंधे उठा बैठे हैं।
खुद की ऑंखें गवां बैठे हैं हैं,
सच को झूठ कहने की
शर्मिंदगी गवां बैठे हैं।
झारफानुस से लटकी कुछ किरणों के
सायों में बिता देते हैं रात,
अँधेरे को समझने की
ताकत गवां बैठे हैं।
दरिया-ऐ-इश्क में फ़ना
हो भी जाएँ तो कैसे,
राह के रोड़ों को
पर्वत बना बैठे हैं।
राह-ऐ-फिरदौस पर उठे जो उनके कदम,
खुदा जन्नत कंधे उठा बैठे हैं।
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