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Sunday, November 9, 2008

शिकार

उसूलों को दे रहे गलियां काबिल--गौर है
ख़ुद दो कदम चल नही सकते ये बात और है

बिना रौशनी दौड़ रहे हैं अँधेरी सुरंगों में
वो कहते इसे ही जिंदगी ये बात और है

शिखर पे होने का दंभ है चेहरे पर
खिसक रही नीचे ज़मीन ये बात और है

ज़ख्मों से सीने पे खाली जगह बची नही
अब भी मैं निशाने पर हूँ ये बात और है

सफर पे था इस तरह की कई हमसफ़र हैं
कारवां कही नही था ये बात और है

उनके अधूरेपन को भरने की कोशिश में
और भी मैं खाली हुआ ये बात और है


दहकते अंगारों में निखार रहा था सोना
हाथ मेरे झुलस गए ये बात और है

जाने किस नशे में लड़खडाए उनके कदम
होश में मैं भी नही था ये बात और है

उनकी कोशिश थी मुझे जोड़ने की उस तरफ़ से
मैं इधर भी दरक रहा था ये बात और है

आयीं वो, गयीं भी वो, रह गई सिर्फ़ यादें
वो कभी आयीं ही नहीं, ये बात और है

खामोशी

उस चेहरे को
कैसे मैं कैद कर लूँ
कलम उसे बयां कर सकती
स्याही की धूप उसपर ठहरती
कागज की छाया भी
मुझसे यूँ आंख-मिचौली खेलती
अक्षरों के साये गुजर जाते हैं
मेरी गली खामोश-सी रह जाती है