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Monday, October 20, 2008

लक्ष्य

मंजिल है वह
दरम्यान है यह 
मैं खड़ा हूँ स्पंदित हूँ 
मुझे जाना है वहाँ 

# बिस्तर पर
पुरूष स्त्री का संग
खिल रहे हैं जीवन के रंग
उमड़ते हैं
नस-नस से
सावनी बादलों के
गुबार-ही-गुबार
अनुभूतियाँ हैं बेशुमार

# विलीन होती
शनैः शनैः तमाम अनुभूतियाँ
उभरता है एक चरम भावः
एक छण विशेष में
लगता कुछ नही आभाव

# वह छण विशेष
लक्ष्य था
मगर यह भ्रम है
एक अधुरा सच
शेष अध क्रम है

# यह छण विशेष
लक्ष्य को मध्यम में
देता है बदल
नए जीवन का बीज
शुरू होता एक नया महल

# लक्ष्य बदल गया है
सूरज ढल गया है
जीवन के धुंधलके में
उसके घात-प्रतिघातों में
कभी-कभी पसरती
मोहक चांदनी रातों में
श्रमिक के हाथों में
ईंटे-गारे
परेशानी से फूटते
पसीने के फव्वारे
कर रहे
एक नए महल का निर्माण
खोज रहा मनुष्य
मनुष्य में अपना निर्वाण

# लक्ष्य सिर्फ़ लक्ष्य नही
वह एक माध्यम भी है
यही जीवन का खेल है
माध्यम और लक्ष्य का मेल है

# जीवन एक सिलसिला है
पूर्णता एक मिथक
वह कभी किसी को मिली है?

# आप कहते हैं
एक को परम तत्त्व/चरम लक्ष्य
इश्वर
उसे ही पाना
जीवन का मूल सत्व
शंकालु हूँ मैं
वह परम तत्त्व/चरम लक्ष्य
पहुंचकर जहाँ
मिलता होगा
जीवन का परमानन्द वहां
लेकिन वही तो माध्यम भी होगा
तो फ़िर लक्ष्य?
लक्ष्य क्या होगा?

Thursday, October 2, 2008

अक्सर रातों में नींद नही आती है
देखता हूँ जिंदगी सामने से गुजर जाती है

अनगिनत परदों के पीछे बैठा हुआ है सच
मंच पर झूठी उम्मीदें खिलखिलाती हैं

मुख्या रास्ते अब होने लगे हैं संकरे
तंग गलियां जीत के नगमे गातीं हैं

बड़े अरमानों के बीच पैदा हुआ था मैं
काली घटायें पल-पल और गहराती हैं

समय ने बढ़ा दी है अपनी रफ़्तार
वक्त से पहले अब शामें ढल आती हैं

मौसम पे लगी बंदिशों का असर है
हवाएं आजकल उधर ही थम जातीं हैं

दरिया का पानी पकड़ने की कोशिश में
हथेलियाँ सिर्फ़ भींग कर रह जाती हैं

जीवन के संगीत को खोजने जो गया
वीणा के कुछ तारें टूटी नजर आती हैं