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Wednesday, February 4, 2015

मुकाम

इन लहरों पर मुकाम देखूं
फिर साहिलों के कैसे मैं पैगाम देखूं।

हाथ आ कर फिसलती जिंदगी
अब मौत का भी पैगाम देखूं।

सोयी हुई ऑंखें ही देखती हैं सपने
खुली आँखों से जिंदगी मैं तमाम देखूं।

कौमों  के बीच मुहब्बत में क्या कमी रह गयी थी
मजलिस में मैं हिन्दू देखूं मुसलमान देखूं।

होकर मजबूर वह बढ़ता गया अकेला ही
क़दमों में उसके मैं दोनों जहान देखूं।

शाम से लेकर कलम वे बैठे हैं लिखने गजल
मैं सफ़ेद कागज़ पर उनका कलाम देखूं।