दूसरों के चश्मे से देखते देखते
खुद की ऑंखें गवां बैठे हैं हैं,
सच को झूठ कहने की
शर्मिंदगी गवां बैठे हैं।
झारफानुस से लटकी कुछ किरणों के
सायों में बिता देते हैं रात,
अँधेरे को समझने की
ताकत गवां बैठे हैं।
दरिया-ऐ-इश्क में फ़ना
हो भी जाएँ तो कैसे,
राह के रोड़ों को
पर्वत बना बैठे हैं।
राह-ऐ-फिरदौस पर उठे जो उनके कदम,
खुदा जन्नत कंधे उठा बैठे हैं।